THN Network (Desk):
बिहार के सियासी इतिहास के पन्ने जब भी 'पलटे' जाएंगे। नीतीश कुमार को जरूर याद किया जाएगा। बिहार को विकास की पटरी पर दौड़ाने के लिए। अपने पहले शासनकाल में राज्य को अपराध मुक्त बनाने के लिए। महिलाओं को आरक्षण देने के साथ बिहार की बेटियों को उड़ान देने के लिए। राज्य में बिजली, सड़क और कानून व्यवस्था की स्थिति सुधारने के लिए। उन्हें शराबबंदी कानून के लिए भी याद किया जाएगा। उसके साथ-साथ उनके सियासी फैसलों के लिए भी उन्हें याद किया जाएगा। सियासी जानकार मानते हैं कि वक्त के साथ नीतीश ने कई ऐसे फैसले लिए जिसे लोगों ने पसंद नहीं किया। उन्हें 'पलटूराम', 'पलटीमार' के अलावा बहुत कुछ कहा गया। उन्होंने सभी बातों का मुस्कुराकर जवाब दिया। लेकिन बिहार की कुर्सी पर बने रहे। कई बार उनकी किस्मत की दाद देते हुए कहा गया कि 'अनका धन पर विक्रम राजा'। यानी जेडीयू कभी भी बहुमत में नहीं रही। राजा नीतीश कुमार जरूर रहे।
आरजेडी को कब सौंपेंगे बागडोर?
आरजेडी के नेता लगातार कह रहे कि नीतीश कुमार बिहार की बागडोर आरजेडी के तेजस्वी यादव को सौंप कर राष्ट्रीय राजनीति में जाएंगे। लालू प्रसाद यादव और जगदानंद सिंह भी नीतीश के राष्ट्रीय राजनीति में जाने की बात कह चुके हैं। आरजेडी के एक विधायक विजय मंडल ने तेजस्वी की ताजपोशी का समय भी मुकर्रर कर दिया है। इधर नीतीश ऐसा कोई संकेत नहीं दे रहे हैं। अतीत में झांकें तो यही दिखेगा कि नीतीश कुमार ने बार-बार साबित किया है कि उनमें नैतिकता की कमी है। त्याग शब्द तो उनके डिक्शनरी में ही नहीं है। यही वजह है कि राजनीति में वे आदर्श पुरुष बनने से चूक गये। उनकी अब तक की राजनीतिक यात्रा में कई ऐसे अवसर आये, जब वे खुद को आदर्श पुरुष बना सकते थे। जाति तोड़ो, जनेऊ छोड़ो वाले जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की उपज और समाजवादी सोच के साथ राजनीतिक सफर शुरू करने वाले नीतीश कुमार घोर जातिवादी भी हैं। जेडीयू का जन्म ही कुर्मी सम्मेलन से हुआ है। बीजेपी के साथ लंबी पारी खेलने के बाद अचानक उससे बिदक कर अलग हो जाना, कभी आरजेडी के साथ जाना और फिर बीजेपी से हाथ मिला लेना उनमें अस्थिरता के भाव को दर्शाता है। उनकी कामयाबी सिर्फ इसी से आंकी जाती है कि खुद के बूते सरकार न बना पाने के बावजूद वे लगातार 17 साल से सीएम बने हुए हैं। भले ही इसके लिए उन्हें नैतिकता को तिलांजलि देनी पड़ी है। उन पर 'अनका धन पर विक्रम राजा' वाली भोजपुरी कहावत पूरी तरह सटीक बैठती है।
बीजेपी से अलग होकर दोबारा जुड़ते रहे
नीतीश कुमार बीजेपी से पहली बार 2014 में बिदके थे, जब पार्टी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट किया था। उन्होंने बीजेपी के सहयोग से बनी सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की, लेकिन संयोग से सरकार बच गयी। 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में जब उनकी पार्टी जेडीयू की दुर्गति हुई तो उन्होंने जीतनराम माझी को सीएम बना दिया और अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए अपने को आजाद कर लिया। यहां तक तो उनमें नैतिकता दिखाई पड़ रही थी। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए ने बिहार में लोकसभा की कुल 40 सीटों में 31 पर जीत दर्ज की। एनडीए के घटक दल लोजपा को 6 और उपेंद्र कुशवाहा की तब की पार्टी आरएलएसपी को 3 सीटों पर कामयाबी मिली थी। नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू को महज दो सीटें ही मिलीं। आरजेडी को 4 और कांग्रेस को 2 सीटें मिली थीं।
जब मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ दी
चुनाव परिणाम से दुखी होकर नीतीश कुमार ने सीएम पद से इस्तीफा देकर जीतनराम माझी को मुख्यमंत्री बना दिया। नीतीश के इस फैसले का सुखद पहलू यह था कि वर्षों बाद सीएम की कुर्सी पर कोई दलित नेता बैठा। यह नीतीश कुमार के लिए नैतिकता साबित करने का माकूल मौका था। लेकिन कुर्सी की बेचैनी ने नीतीश को नैतिक नहीं रहने दिया। वे माझी को हटा कर फिर सीएम की कुर्सी पर विराजमान हो गये। 2014 में बुरी तरह पराजय के बाद बीजेपी विरोधी पार्टियों को एकजुटता की जरूरत महसूस हुई। लोकसभा के नतीजे आने के बाद से विपक्ष में ध्रुवीकरण की कवायद शुरू हो गयी थी। विधानसभा की 10 सीटों पर हुए उपचुनाव में नीतीश कुमार ने अपने धुर विरोधी लालू प्रसाद यादव से हाथ मिला लिया। इसका सकारात्मक परिणाम आया। 10 में से 6 सीटों पर नीतीश-लालू की जोड़ी ने कामयाबी हासिल की। बीजेपी के लिए यह करारी चोट थी। नवंबर 2015 में विधानसभा के चुनाव होने थे। उपचुनाव में महागठबंधन का पहला प्रयोग सफल रहा था। उसके बाद आरजेडी, जेडीयू और कांग्रेस ने महागठबंधन बना कर असेंबली इलेक्शन लड़ने के फैसला किया। यह प्रयोग बेहद सफल रहा। बीजेपी को महागठबंधन ने अपनी ताकत का एहसास करा दिया। 243 सीटों वाली असेंबली में महागठबंधन को 178 सीटें आयीं। एनडीए 58 पर सिमट गया। ग्रैंड अलायंस और एनडीए के बीच 120 सीटों और 7 .6 फीसद वोटों का अंतर था। महागठबंधन को 41 .7 फीसद वोट आये थे।
गठबंधन से हमेशा नीतीश को ही हुआ फायदा
2015 में बने महागठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी बन कर आरजेडी उभरी थी। 101 सीटों पर लड़ कर उसने 80 सीटों पर कामयाबी हासिल की। इतनी ही सीटों पर लड़ कर जेडीयू को 71 सीटें मिली थीं। कांग्रेस ने 41 सीटों पर लड़ कर 27 सीटें जीतीं। बीजेपी की दुर्गति का आलम यह था कि उसने 160 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, मगर 53 सीटों पर ही जीत मिली। लोजपा 40 पर लड़ी और 2 सीटें जीतीं। आरएलएसपी ने 23 उम्मीदवार खड़े किये, लेकिन उसे 2 पर ही कामयाबी मिली। जीतन राम माझी 20 सीटों पर लड़ कर महज एक सीट जीत पाये थे। संख्या बल में बड़ी पार्टी होने के बवजूद आरजेडी ने त्याग किया और 71 सीटों वाले नीतीश कुमार को सीएम की कुर्सी पर बिठाया। यह आरजेडी नेता लालू प्रसाद की नैतिकता थी, जिन्हें कभी कोस कर नीतीश कुमार सीएम नीतीश ने बिहार की गद्दी हासिल की थी।
सियासी विश्वसनीयता काफी कम!
तकरीब डेढ़ साल (20 महीने) बेखटके सरकार चली। अचानक नीतीश कुमार ने 26 जुलाई 2017 को आरजेडी विधायक दल के नेता और डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के आरोपों के मद्देनजर सीएम पद से इस्तीफा दे दिया। इससे पहले उन्होंने यह जरूर कहा था कि तेजस्वी अपने उपर लगे आरोपों को लेकर जनता के बीच जाकर सफाई दें। इस्तीफा देने के कुछ ही घंटे के अंदर नीतीश उस बीजेपी के साथ सरकार बनाने के लिए राजभवन पहुंच गए, जिसके खिलाफ उन्हें जनादेश मिला था। नीतीश के इस्तीफे तक तो उनकी नैतिकता समझ में आ रही थी, लेकिन बीजेपी के साथ जाने से उनकी आलोचना होने लगी। उनका नामकरण लालू ने पलटूराम कर दिया।