उपेंद्र कुशवाहा ने क्यों नहीं ली जेडीयू से हिस्सेदारी?
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उपेंद्र कुशवाहा ने क्यों नहीं ली जेडीयू से हिस्सेदारी?

THN Network (Desk): 



60 दिनों तक सियासी विद्रोह छेड़ने के बाद कद्दावर नेता उपेंद्र कुशवाहा ने नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड को अलविदा कह दिया है. जेडीयू से इस्तीफा देने के बाद कुशवाहा ने नई पार्टी राष्ट्रीय लोक जनता दल बनाने का ऐलान किया है. कुशवाहा पहले भी दो बार अपनी खुद की पार्टी बना चुके हैं. 
1985 से राजनीतिक करियर की शुरुआत करने वाले उपेंद्र कुशवाहा ने 8वीं बार पलटी मारी है. जेडीयू छोड़ने के बाद कुशवाहा ने नीतीश कुमार पर जमकर निशाना साधा. उन्होंने कहा कि नीतीश कुमार एक-दो लोगों के कहने पर निर्णय लेते हैं. इसी वजह से जेडीयू बर्बाद हो रही है और सीएम नीतीश को बाहर से उत्तराधिकारी ढूंढ़ना पड़ रहा है. 

मोदी कैबिनेट में मंत्री रह चुके उपेंद्र कुशवाहा की गिनती नीतीश कुमार के करीबी नेताओं में होती थी. कुशवाहा राज्यसभा, लोकसभा, विधानसभा और विधान परिषद यानी चारों सदन के सदस्य रह चुके हैं. कुशवाहा जेडीयू और राजद के बीच गठबंधन के फैसले से खफा बताए जा रहे थे. 

हिस्सेदारी की मांग पर क्या बोले कुशवाहा?
26 जनवरी को नीतीश कुमार के एक बयान पर उपेंद्र कुशवाहा ने जवाबी हमला करते हुए कहा था कि बिना हिस्सेदारी लिए जेडीयू से नहीं जाएंगे. सोमवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब पत्रकारों ने कुशवाहा से हिस्सेदारी को लेकर सवाल पूछा तो उन्होंने कहा नीतीश कुमार के पास अब कुछ है ही नहीं. 


कुशवाहा ने आगे कहा कि नीतीश कुमार के पास अब कुछ नहीं बचा है. उन्होंने पार्टी को गिरवी रख दिया है. मैं उनसे क्या हिस्सा मांगू. उनके हाथ में जीरो है. कुशवाहा के इस बयान को सोशल मीडिया पर उनके समर्थक खूब वायरल कर रहे हैं. 

क्या सच में नीतीश के पास अब कुछ नहीं है?
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जनता दल यूनाइटेड के नेता हैं. जेडीयू में अध्यक्ष भले कोई रहे, लेकिन अंतिम फैसला नीतीश कुमार ही लेते हैं. 2021 में आरसीपी सिंह को हटाकर ललन सिंह को जेडीयू का अध्यक्ष बनाया गया था. 

बिहार, अरुणाचल प्रदेश और झारखंड में जेडीयू का जनाधार है. लोकसभा में पार्टी के पास वर्तमान में 16 सांसद हैं. वहीं राज्यसभा की 5 सीटों पर भी जेडीयू का कब्जा है. बिहार में जेडीयू सरकार में शामिल है और विधानसभा में 45 सीटों के साथ तीसरी बड़ी पार्टी है. 

2019 में जेडीयू को 22 फीसदी तो 2020 में 16 फीसदी वोट मिला था. यानी वोट पर्सेंट के लिहाज से भी बिहार के पॉलिटिक्स में जेडीयू अभी मजबूत पार्टी है. एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक 2020-21 में जेडीयू को 60 करोड़ रुपए का चंदा मिला, जो राज्य स्तरीय पार्टियों की सूची में सबसे अधिक था. 

जब नीतीश ने मांगा था लालू यादव से हिस्सेदारी
जेडीयू छोड़ने से पहले उपेंद्र कुशवाहा 1994 की एक रैली का हमेशा जिक्र करते हैं. उस वक्त लालू यादव की सरकार थी और पटना में कुर्मी समाज की एक रैली हुई थी. उस रैली में नीतीश कुमार ने लालू यादव से हिस्सेदारी मांगा था.

लालू की सरकार में लगातार यादवों को मिल रहे लाभ से नीतीश खफा थे. इस रैली के बाद ही नीतीश कुमार ने जनता पार्टी में विभाजन की पटकथा लिखी. नीतीश के लालू से अलग होने के बाद बिहार में ओबीसी समुदाय में ध्रुवीकरण हुआ और लव-कुश (कुर्मी-कुशवाहा) वोटर नीतीश के साथ चले गए.

1994 में जब जनता दल में टूट हुई तो उस वक्त नीतीश कुमार के साथ बिहार के 13 सांसद थे. लालू यादव ने सांसदों की ताकत को देखते हुए आधी रात को विधायकों की बैठक बुलाई थी. बाद में लालू यादव ने राष्ट्रीय जनता दल का गठन किया. वहीं दूसरी ओर जॉर्ज फर्नांडिज और नीतीश कुमार ने समता पार्टी बनाई. 

उपेंद्र कुशवाहा को भी जेडीयू से इसी तरह की हिस्सेदारी मिलने की उम्मीद थी और उनके समर्थक लगातार इसकी मांग भी कर रहे थे. 

फिर बिना हिस्सेदारी लिए क्यों निकले कुशवाहा?
उपेंद्र कुशवाहा भले हिस्सेदारी लेने के मामले में दिलेरी दिखा रहे हों, लेकिन हकीकत दिलेरी से अधिक मजबूरी की है. आइए विस्तार से जानते हैं कि जेडीयू में बिना हिस्सेदारी लिए क्यों आउट हो गए उपेंद्र कुशवाहा?

1. रालोसपा से आए नेताओं का भी नहीं मिला साथ- 2021 में जब उपेंद्र कुशवाहा अपनी पार्टी रालोसपा का विलय किया था तो उस वक्त उनके साथ 100 से अधिक पदाधिकारी और हजारों कार्यकर्ता जेडीयू में शामिल हुए थे. 

अब जब जेडीयू से बगावत कर फिर उन्होंने नई पार्टी बनाने का ऐलान किया है, तो पुराने सहयोगी उनके ही खिलाफ हो गए. रालोसपा के वक्त उपेंद्र कुशवाहा के सहयोगी रहे बृज कुशवाहा और धीरज सिंह कुशवाहा समेत 4 नेताओं ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इस फैसले का विरोध कर दिया. 

जेडीयू में बगावत से पहले कुशवाहा ने इन नेताओं से संपर्क भी साधा था, लेकिन सभी ने नीतीश कुमार का साथ छोड़ने से सीधा मना कर दिया, जिसके बाद कुशवाहा अलग-थलग पड़ गए. इतना ही नहीं विधान पार्षद रमेश्वर महतो शुरू में तो कुशवाहा का साथ दिया, लेकिन जेडीयू से बगावत की बात आई तो उन्होंने भी पल्ला झाड़ लिया. 

2. फिर हिट विकेट नहीं होना चाहते थे कुशवाहा- 2005 में उपेंद्र कुशवाहा को नीतीश कुमार के खिलाफ बोलने की वजह से बर्खास्त कर दिया गया था. कुशवाहा ही नहीं नीतीश के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंकने वाले जॉर्ज फर्नांडिस, शरद यादव और आरसीपी सिंह की विदाई भी बुरे तरीके से हुआ था.

कुशवाहा नीतीश के साइलेंट कीलिंग स्ट्रैटजी से अच्छी तरह वाकिफ हैं. ऐसे में कुशवाहा हिस्सेदारी की मांग के पीछे पड़ हिट विकेट नहीं होना चाहते थे. कुशवाहा अगर कुछ दिन और जेडीयू में रहते तो पार्टी भी कोई कदम उठा सकती थी, जिससे कुशवाहा के लिए आगे की राह और मुश्किल हो जाता.

जेडीयू से अलग बैठक बुलाने के आरोप में कुशवाहा पर पार्टी कार्रवाई की भी तैयारी कर रही थी. कुशवाहा इसे भी भांप लिए.  इसलिए कुशवाहा हिस्सेदारी की जिद छोड़ खुद पार्टी से निकल गए. 

3. कुशवाहा के आरोप को जेडीयू नेताओं ने सीरियस नहीं लिया- सत्ता में बने रहने के लिए पिछले 10 साल में नीतीश कुमार भी 4 बार पाला बदल चुके हैं. जेडीयू में उनके इर्द-गिर्द रहने वाले नेता नीतीश के इस दांव से भली भांती परिचित हैं. ऐसे में कुशवाहा के गठबंधन बदलने से जेडीयू कमजोर हो रही है के आरोप पर किसी ने विश्वास नहीं किया.

उलटे जेडीयू ने उपेंद्र कुशवाहा के पीछे पार्टी के दिग्गज कुशवाहा नेताओं को उतार दिया. इनमें श्रवण कुशवाहा, उमेश कुशवाहा और भगवान सिंह कुशवाहा का नाम प्रमुख हैं. कुशवाहा और कुशवाहा में भिड़ंत से बचने के लिए चुपचाप ही पार्टी से उपेंद्र कुशवाहा निकल गए. 

4. राजनीतिक विश्वसनीयता और भविष्य पर संदेह- कुशवाहा समता पार्टी, राष्ट्रीय समता पार्टी, जेडीयू और एनसीपी में रह चुके हैं. वहीं कांग्रेस और बीजेपी और बसपा जैसे दलों के साथ गठबंधन में भी शामिल हो चुके हैं. यानी कुशवाहा कभी कोई फैसला कर सकते हैं. 

कुशवाहा का नया लक्ष्य 2024 का चुनाव है. नई पार्टी बनाने के बाद कुशवाहा ने पीएम मोदी की तारीफ की है. अटकलें लगाई जा रही है कि आने वाले समय में कुशवाहा बीजेपी के साथ गठबंधन कर सकते हैं. अगर गठबंधन करते हैं, तो कितनी सीटें पार्टी को मिलेगी? इस पर भी संशय है. 2014  में कुशवाहा को 3 सीटें काराकाट, जहानाबाद और सीतामढ़ी मिली थी.

इन दो वजहों की वजह से भी कुशवाहा जेडीयू में नेताओं को गोलबंद नहीं कर पाए, जिसके कारण हिस्सेदारी लेने में चूक गए. 

नीतीश के लिए कितना बड़ा झटका?
बिहार में कोइरी-कुशवाहा करीब 5 फीसदी के आसपास हैं. उपेंद्र कुशवाहा को 2014 में करीब 3 फीसदी वोट मिला था. कोइरी वोटर मूलरूप से नीतीश कुमार का जनाधार माना जाता है. 2020 में हार के बाद नीतीश ने इसे साधने के लिए उमेश कुशवाहा को प्रदेश अध्यक्ष और उपेंद्र कुशवाहा को संसदीय बोर्ड का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया था. 

अब उपेंद्र कुशवाहा के बाहर जाने से कोइरी वोटरों को साधना नीतीश के लिए मुश्किल काम हो गया है. बताया जा रहा है कि उपेंद्र कुशवाहा के इस्तीफे से रिक्त विधान परिषद की सीट पर किसी कुशवाहा को ही नीतीश भेज सकते हैं. 

वहीं उपेंद्र कुशवाहा का लोकसभा की जिन सीटों पर पकड़ हैं, वहां जेडीयू के ही सांसद हैं. 2014 में कुशवाहा की पार्टी को काराकाट, जहानाबाद और सीतामढ़ी सीट से जीत मिली थी. 2019 में इन तीनों सीटों पर जेडीयू ने जीत दर्ज की है.

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